गुरुवार, 5 अगस्त 2010

उम्मीद


एक सदी से खड़ा हू एक कमजोर ईमारत की तरह बस एक आश बाकि हैं
एक तलाश बाकि हैं एक नयी सुबह की जिसमे डूब के जान सकू मैं इन्सान क्यूँ हू मैं मैंने जिन्दगी इस भुलावे में जिया की सुबह की मंजिल पास हैं पथरीले आँखों में अब बुझती जा रही यह आस हैं
अब उम्मीद भी बूढी होती जा रही हैं मेरी तरह अब बुझती जा रही हैं उम्मीदे उस मशाल की तरह

खड़ा हू जैसे उस ईमारत की तरह जिसमे उम्मीदों की सैलाब बसाये थे इंसानों ने उस मजार की तरह

जहा खुदा हैरान हैं इंसानों के द्वारा बनाये उम्मीदों के दुकान को देखकर

अविनाश





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