रविवार, 28 नवंबर 2010

सपनो में गाँधी

एक दिन यु किसी ने मुझसे पूछा "क्या तुमने हिंदुस्तान को देखा हैं" वोह रात का सन्नाटा था और उस शख्स का चेहरा अँधेरे में ढका हुआ था मैं डर गया क्यूंकि आजकल के ज़माने में ऐसी बाते कोई नहीं पूछता|
अपने तेज चाल से उस शख्स से पीछा छुड़ाना चाहता था पर उसकी आवाज मुझे पुकार रही थी उसने कहा डरो नहीं मैं गाँधी हु मैंने सोचा मेरे दिमाग में भी केमिकल लोचा हो गया हैं पर वोह मेरे पास गया वोह सच में गाँधी थे |
उसने कहा डरो नहीं मुझसे या मेरे बारे में अब कोई बात नहीं करता तो सोचा चलो रात में कोई तो मिले जिससे मैं हिंदुस्तान का पता पूछ लू मैंने कहा आप हिंदुस्तान में हो |
वोह हँस पड़े उन्होंने कहा अभी मैं पूरा देश घूमकर डेल्ही आया हु पर हिंदुस्तान कही नजर नहीं आया मैंने कहा बापू यह हिंदुस्तान ही तो हैं | उन्होंने एक फीकी हसी के साथ बताना शुरू किया अभी बिहार गया देखा लाशो के ढेर पे कुछ आंसू बहाए जा रहे थे मरने वाले भी हिन्दुस्तानी थे और मारने वाले भी हिन्दुस्तानी लगा जैसे मैं अपने ही देश में पराये सा हो गया हु फिर बड़ी मुश्किल से खुद को सम्हाला और घूमता रहा देश के हर कोने में शायद कोई तो गाँधी दिख जाये मेरे जैसा पर हर तरफ चेहरों में अजनबीपन था कही गोली चल रही थी कही पे दंगे हो रहे थे |
मैं सोचता हु अगर देश आजाद होता तो शायद सही होता कमसकम यह रंजिशे तो बढती यह हवस तो बढ़ता | मुझे समझ नहीं आता क्या यह वही हिंदुस्तान हैं जहा इंसानों की बाते किताबो से ज्यादा चलचित्रों में दिखाई जाती हैं जहा मेरे सन्देश को एक मवाली चरित्र समझा रहा हैं| देश के लिए गोली खाया सोचा लोगो के चेहरे पे हसी आएगी लोग जियेंगे सुकून से हर तरफ अमन होगा पर आज देखता हु तो लगता हैं जैसे गुलामी की बेड़िया
आज भी हैं पहले गैरो के हाथो अब अपनों के हाथो |कल ही देखा था मैंने छत्तीसगढ़ में 76 लाशो के साथ लिपटी मेरी तस्वीर जिसके निचे लिखा था "अहिंसा परमो धर्म " |
कल ही तो सुना कुछ लोगो को कहते गाँधी ने देश को बर्बाद कर दिया इन सुनी आँखों ने कल ही तो देखा भूख से मरते झारखण्ड के उस किसान को | बहुत कुछ देखा सुना अब मैं बहरा भी हु और अँधा भी अब मैं सिर्फ ऑफिस और स्कूल में लटका एक तस्वीर मात्र मुझमे अब छमता नहीं की मैं देख सकू लहू में सने रोते बिलखते उन परिवारों को जो दंगो की भेट छड गए |
आज मैं डेल्ही में हु लाल किला के दरवाजे के पास खड़ा हुआ तो एक बेजान सी आवाज आई कल मुगलों को लुटते देखा था फिर अंग्रेजो को लुटते देखा था अब अपनों के हाथो से लुट चुक हु अब मुझमे दम नहीं की देख सकू हर साल मेरे सर पे एक झूठी आस जागते एक झूटी सपनो को दिखाते कुछ खादी वाले जिन्होंने हिंदुस्तान की ईमारत सपनो की झूटी आस पे खडी की हुई हैं |
अब बस मैं बस एक बुत हु गाँधी नहीं गाँधी को एक गोडसे ने मारा था पर आत्मा को करोडो गोडसे ने करोड़ बार मारा हैं |
मैंने देखा एक सुस्त सी चल में गाँधी जा रहे हैं एक अनकही दर्द का एहसास देकर क्या वोह सपना था अगर सपना था तो सपना ही रहे क्यूंकि हकीकत होती तो मुझे तकलीफ होती क्यूंकि मैं भी एक आधुनिक भारत का आधुनिक चेहरा हु जिसे गाँधी से ज्यादा शाहरुख़ पसंद हैं

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

मेरा सपना

"मैं कोई सपनो की दुनिया में डूब कर कविता नहीं लिख पाता क्यूंकि मैं सपने नहीं देखता "
आधुनिक युग का हर कवी सपने के साथ कविता नहीं लिखता क्यूंकि वोह हकीकत की दुनिया जीता हैं और कुछ लिख कर बच्चो के सपने पूरा करता हैं | कुछ कवी अपने रचनाओ को बंद आलमारी में समेट कर रखते हैं क्यूंकि बाहर उनकी रचनाओ को टक्कर "मुन्नी बदनाम"हुई देती हैं| साहित्य को दिल में बसाये मैं कभी कुछ लिखता हु खुद ही पढता हु और खुद ही मिटाता हु | एक बार कोशिश की थी सपनो के दुनिया में डूबकर कुछ प्रेम गीत लिखने की पर हर बार की तरह प्रेम को पैसे की तराजू में तौला गया और मुझे एक साहित्यकार से ब्रांडेड बनने को मजबूर कर दिया गया | पर फिर भी रात के तन्हाई में लेखक मन हिमाकत करता हैं और कलम से कुछ टूटी फूटी या यु कहे एक बेनाम दर्द की अनकही दास्ताँ लिखने को मजबूर कर देता हैं |
मैं लिखने की शैली बदलता रहता हु क्यूंकि इस आधुनिकता में हर बार अपने आप को बदलना पड़ता हैं |
अब मुझे गाँव की यादो में कविता लिखने का मन नहीं करता क्यूंकि गाँव पे कोई subject अब पसंद नहीं की जाती | याद हैं कभी पढ़ा था भारत की आत्मा गाँव में बस्ती हैं तब शायद स्कूल में था अब शायद मैं दुनिया में हु |
अब माँ के ऊपर कविता लिखने में थोड़ी संकोच होती हैं क्यूंकि ब्रांडेड शहर में यह विषय पुराना faishion हो गया हैं
पर कभी माँ की यादो में डूब कर सोचता हु की बच्चा अच्छा था कम से कम अपनी माँ को तोता मैना की कविताओ को सुना कर खुश कर देता था |
कुछ लिखने की मज़बूरी ,पर दिल की हिमाकत लिखने को तब मजबूर करती हैं जब अपने ही घर में परायो सा अनुभव होता हैं जब अपने ही देश में डर लगता हैं तब शायद कवी मन कुछ कहता हैं कुछ लिखता हैं | मुझे मालूम हैं अब कोई दिनकर नहीं होगा क्यूंकि देश तब सपनो और उम्मीदों पे जीता था और आज सब कुछ होकर भी नाउम्मीदी में जीता हैं | अब हर कवी को प्रेम गीत में शब्द नहीं मिलते क्यूंकि मोह्बत भी अब आँखों में नहीं क्रेडिट कार्ड में बसते हैं इसलिए हर कवी किसी विषय पे नहीं बस अपनी किस्मत की कहानी लिखता हैं सपनो से दूर हकीकत में जीता हैं |

अवि