रविवार, 22 अगस्त 2010
याद हैं तुमको एक तस्वीर बनाई थी मैंने मन
के कैनवस पे दुल्हन की लिबास में तुम उस तस्वीर सी लगती हो
यू ही कभी फुर्सत के लम्हों में मैं देखता हु अपनी यादो में तो वोह तस्वीर धुंधली सी लगती हैं
कोई तस्वीर अब नहीं बनाता मैं
क्यूंकि उस में अब तुम्हारा अक्स नहीं नजर आता मुझे
कभी यु ही कई ख्वाब बुन चूका था मैं
जिसमे तुम थी मैं था पर सच में
न तुम थी न मैं था
बस एक ख्वाब था और ख्वाब तो ख्वाब होते हैं...............................................पर आज भी न जाने क्यूँ
तुम्हरा एक अनकही होने का एहसास सा लगता हैं
मुझे पता हैं अब न तुम हो ना तुम्हारी परछाई पर क्यूँ हर पल तुम्हारा इंतजार सा रहता हैं
अविनाश
एक छोटा आसमान
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
उम्मीद
एक सदी से खड़ा हू एक कमजोर ईमारत की तरह बस एक आश बाकि हैं
एक तलाश बाकि हैं एक नयी सुबह की जिसमे डूब के जान सकू मैं इन्सान क्यूँ हू मैं मैंने जिन्दगी इस भुलावे में जिया की सुबह की मंजिल पास हैं पथरीले आँखों में अब बुझती जा रही यह आस हैं
अब उम्मीद भी बूढी होती जा रही हैं मेरी तरह अब बुझती जा रही हैं उम्मीदे उस मशाल की तरह
खड़ा हू जैसे उस ईमारत की तरह जिसमे उम्मीदों की सैलाब बसाये थे इंसानों ने उस मजार की तरह
जहा खुदा हैरान हैं इंसानों के द्वारा बनाये उम्मीदों के दुकान को देखकर
अविनाश
सदस्यता लें
संदेश (Atom)